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युवक!
युवावस्था मानव-जीवन का वसन्तकाल है। उसे पाकर मनुष्य मतवाला हो जाता है। हजारों बोतल का नशा छा जाता है। विधाता की दी हुई सारी शक्तियाँ सहस्र धारा होकर फूट पड़ती हैं। मदांध मातंग की तरह निरंकुश, वर्षाकालीन शोणभद्र की तरह दुर्द्धर्ष,प्रलयकालीन प्रबल प्रभंजन की तरह प्रचण्ड, नवागत वसन्त की प्रथम मल्लिका कलिका की तरह कोमल, ज्वालामुखी की तरह उच्छृंखल और भैरवी-संगीत की तरह मधुर युवावस्था है। उज्जवल प्रभात की शोभा, स्निग्ध सन्ध्या की छटा, शरच्चन्द्रिका की माधुरी ग्रीष्म-मध्याह्न का उत्ताप और भाद्रपदी अमावस्या के अर्द्धरात्र की भीषणता युवावस्था में निहित है। जैसे क्रांतिकारी की जेब में बमगोला, षड्यंत्री की असटी में भरा-भराया तमंचा, रण-रस-रसिक वीर के हाथ में खड्ग, वैसे…
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भगत सिंह: मैं नास्तिक क्यों हूँ ?
यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । यह भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।
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अर्थार्थ : ‘मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स’ के आलोक में जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन
भारतीय अर्थव्यवस्था जहां पूरी तरह से वैश्विक बाज़ारों से जुड़ चुकी है, वहीं विकास की कमी की वजह से अब भी हम अपनी अन्य व्यवस्थाओं को वैश्विक परिदृश्य में नहीं देख पाते। हमने अपनी अर्थव्यवस्था में ट्रांस-नेशनल कॉरपोरेशंस की बढ़ती पैठ को नब्बे के दशक से ही देखा है। उस दौर से लेकर अब तक, लगभग तीस वर्षों में, उन कार्पोरेशंस ने अपनी जडें व्यवस्था में बहुत गहरी कर ली हैं। इन कारपोरेशंस के ग्राहक जो आम लोग हैं, ज्यादातर निम्न आय वर्ग से हैं जो अपनी दैनिक समस्याओं के कारण शायद ही कभी विश्व स्तर पर सोच पाते हैं। इसका एक कारण मीडिया द्वारा वैश्विक घटनाओं के बारे में…