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अर्थार्थ : सत्य की जीत के रास्ते में ‘बड़ा षडयंत्र’ क्या है?
एक आम आदमी को भारतीय न्यायालयों पर जितना भरोसा है उतना किसी भी अन्य संस्था नहीं। यह एकमात्र ऐसी संस्था है जिसने मुश्किल दौर में भी क्रांतिकारी फैसले लेकर आम अवाम को सशक्त किया है। हमारे न्यायालयों ने न सिर्फ लोकतंत्र को बचाया है बल्कि संविधान में लोगों के विश्वास भी इन्हीं की बदौलत जीवित है। आज भी जब कमज़ोर को दबाया जाता है तो दबे स्वर में ही सही, वह कोर्ट जाने की धमकी देता है। यह भारतीय न्यायालयों पर हमारा विश्वास हीं है जो हमें ढांढस बंधाता है कि शासक के अन्यायी होने पर भी हम यहां न्याय की गुहार कर सकते हैं, चाहे उसमें कितनी भी देर…
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अर्थार्थ : अपराधियों, हत्यारों, बलात्कारियों, बेईमानों की आज़ादी
किस बात की शुभकामना देना उचित है यह भी विचारणीय हो चला है। आज़ादी पर शुभकामना देना तो अब दकियानूसी बात ही है। जहां लोग अन्याय के खिलाफ सिर्फ आवाज़ उठाने पर कैद कर लिए जाएं, तो यह कैसे मानें कि वह मुल्क आज़ाद लोगों का है? कौन आज़ाद है यहां? क्या आप आज़ाद हैं?
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अर्थार्थ : ‘मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स’ के आलोक में जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन
भारतीय अर्थव्यवस्था जहां पूरी तरह से वैश्विक बाज़ारों से जुड़ चुकी है, वहीं विकास की कमी की वजह से अब भी हम अपनी अन्य व्यवस्थाओं को वैश्विक परिदृश्य में नहीं देख पाते। हमने अपनी अर्थव्यवस्था में ट्रांस-नेशनल कॉरपोरेशंस की बढ़ती पैठ को नब्बे के दशक से ही देखा है। उस दौर से लेकर अब तक, लगभग तीस वर्षों में, उन कार्पोरेशंस ने अपनी जडें व्यवस्था में बहुत गहरी कर ली हैं। इन कारपोरेशंस के ग्राहक जो आम लोग हैं, ज्यादातर निम्न आय वर्ग से हैं जो अपनी दैनिक समस्याओं के कारण शायद ही कभी विश्व स्तर पर सोच पाते हैं। इसका एक कारण मीडिया द्वारा वैश्विक घटनाओं के बारे में…
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अर्थार्थ : NPA पर ओढ़ाया गया उदारीकरण का जामा एक महान घोटाले का संकेत है
1991-1992 के बजट भाषण को तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने फ्रांसीसी उपन्यासकार विक्टर ह्यूगो के एक उद्धरण के साथ समाप्त किया था: “पृथ्वी पर कोई भी शक्ति एक विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है। पूरी दुनिया में जोर से और स्पष्ट सुनाई दे कि भारत अब व्यापक तौर पर जागृत है। हम प्रबल होंगे और दूर तक जाएंगे”। सिंह की इस घोषणा के साथ ही भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर प्रारम्भ हुआ। इन सुधारों से जिस पैमाने पर बदलाव हुए वे कभी नहीं देखे गये थे। इन सुधारों पर कई जानकारों का मत था कि ये 1980 के दशक में "चुपके से” शुरू किए…
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अर्थार्थ : उदारीकरण का दशक
खालिस्तान आंदोलन के लिये भिंडरावाले का समर्थन किया जाना पार्टी विशेष के राजनीतिक स्वार्थ साधने का तरीका था, लेकिन उसके कारण हुई हिंसा ने यह साबित किया कि साम्प्रदायिक उन्माद एक ऐसे जिन्न की तरह है जिसे चिराग से बाहर काबू नहीं किया जा सकता। फिर भी तृष्णा में लिप्त नेता इसका निरंकुश होकर इस्तेमाल करते रहे हैं। इसी का परिणाम है हमारा खंडित समाज जो जाति-धर्म का भेद होने और अब तो केवल विचारों की भिन्नता होने पर किसी की भी हत्या करने पर आमादा है।
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अर्थार्थ : पहचान का संकट और संकट की विरासत
बुद्धिजीवियों ने धर्म पर काफी कुछ लिखा-बोला पर है पर मौजूदा स्थिति में वे आम जन से संवाद स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। संवेदनशील मुद्दों पर घर के बाहर “खुले में” बात करने की क्षमता वालों को अब अंगुलियों पर गिना जा सकता हैं। क्या आपको अब भी अपने अधिकारों का हनन होता नहीं दिख रहा? बाहर की हवा अब खुली नहीं है, उसमें अजीब सा भारीपन है जो केवल प्रदूषण से नहीं है। क्या बुद्धिजीवियों का दायित्व किसी बात को कह देने या लिख देने भर से खतम हो जाता है?
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अर्थार्थ : डांसिंग… प्लेइंग… लिंचिंग?
हमारी संस्कृति का ताना-बाना पूरी तरह धर्म के इर्द-गिर्द बुना हुआ है। कई मायनों में यह जुड़ाव इस हद तक है कि धर्म और संस्कृति का भेद न के बराबर है। देश की सेना दिवंगत जवानों को श्रद्धांजलि दिये बिना युद्ध के मैदान में नहीं उतरती, वैज्ञानिक पद्धतियों से बनी फैक्टरी बिना परमात्मा को याद किये शुरू नहीं की जाती और इसी देश में व्यक्ति का धर्म पूछ कर उसे लिंच कर दिया जाता है! दी गई तीनों घटनाएं हिंदू धर्म के अंगों का सटीक उदाहरण हैं। दिवंगत जवानों को श्रद्धांजलि देना- आध्यात्म का; नए काम को शुरू करने से पूर्व परमात्मा को याद करना- संस्कृति का और व्यक्ति का…
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अर्थार्थ : अंधकार के युग में… प्रकाश की ओर… एक कदम
खबर यह है कि कोई खबर ही नहीं है । प्रधानमंत्री अपनी कैबिनेट के साथ शपथ ले चुके हैं, वित्त को रक्षा प्राप्त हो गयी है, और हम-आप पांच साल के लिये सो सकते हैं। जिन लोगों ने उच्च शिक्षा का प्रयास किया होगा वे जानते होंगे की पी.एच.डी. करने से पूर्व थीसिस का विषय चुनना होता है। साधारण शब्दों में, किसी विश्लेषण की शुरुआत होती है मुद्दे के चुनाव से। लेकिन भारत या यूं कहें कि सम्पूर्ण विश्व में शायद ही कोई संस्था या व्यवस्था बची हो जिसमें खोट न हो। जब सब तरफ़ हाल सामान्य रूप से खराब हों तो किस मामले को गम्भीर मान कर उसका विश्लेषण…