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कोलकाता का यह संग्रहालय कला की चिकित्सीय शक्ति को दर्शाता है
बंगाल का एक संग्रहालय, विभाजन के ऐतिहासिक आघात का सामना करने में कैसे मदद कर सकता है? भारत और पाकिस्तान में आज की नाराज़गियां और तनाव 1947 से अब तक के फैले हुए, लंबे और अपीरिक्षित इतिहास से पैदा हुई हैं। यह संग्रहालय अपने आगंतुकों को अपनी साझा विरासत को फिर से खोजने के लिए आमंत्रित करके, सांप्रदायिक-राष्ट्रवादी बयानबाज़ी के परे जाकर, अतीत की सच्चाई का सामना करने में मदद कर सकता है।
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भगत सिंह: मैं नास्तिक क्यों हूँ ?
यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । यह भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।
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अर्थार्थ : पहचान का संकट और संकट की विरासत
बुद्धिजीवियों ने धर्म पर काफी कुछ लिखा-बोला पर है पर मौजूदा स्थिति में वे आम जन से संवाद स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। संवेदनशील मुद्दों पर घर के बाहर “खुले में” बात करने की क्षमता वालों को अब अंगुलियों पर गिना जा सकता हैं। क्या आपको अब भी अपने अधिकारों का हनन होता नहीं दिख रहा? बाहर की हवा अब खुली नहीं है, उसमें अजीब सा भारीपन है जो केवल प्रदूषण से नहीं है। क्या बुद्धिजीवियों का दायित्व किसी बात को कह देने या लिख देने भर से खतम हो जाता है?
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अर्थार्थ : डांसिंग… प्लेइंग… लिंचिंग?
हमारी संस्कृति का ताना-बाना पूरी तरह धर्म के इर्द-गिर्द बुना हुआ है। कई मायनों में यह जुड़ाव इस हद तक है कि धर्म और संस्कृति का भेद न के बराबर है। देश की सेना दिवंगत जवानों को श्रद्धांजलि दिये बिना युद्ध के मैदान में नहीं उतरती, वैज्ञानिक पद्धतियों से बनी फैक्टरी बिना परमात्मा को याद किये शुरू नहीं की जाती और इसी देश में व्यक्ति का धर्म पूछ कर उसे लिंच कर दिया जाता है! दी गई तीनों घटनाएं हिंदू धर्म के अंगों का सटीक उदाहरण हैं। दिवंगत जवानों को श्रद्धांजलि देना- आध्यात्म का; नए काम को शुरू करने से पूर्व परमात्मा को याद करना- संस्कृति का और व्यक्ति का…